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देवता: अश्विनौ ऋषि: प्रस्कण्वः काण्वः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

ए꣣षो꣢ उ꣣षा꣡ अपू꣢꣯र्व्या꣣꣬ व्यु꣢꣯च्छति प्रि꣣या꣢ दि꣣वः꣢ । स्तु꣣षे꣡ वा꣢मश्विना बृ꣣ह꣢त् ॥१७२८॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

एषो उषा अपूर्व्या व्युच्छति प्रिया दिवः । स्तुषे वामश्विना बृहत् ॥१७२८॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ए꣣षा꣢ । उ꣣ । उषाः꣢ । अ꣡पू꣢꣯र्व्या । अ । पू꣣र्व्या । वि꣢ । उ꣣च्छति । प्रिया꣢ । दि꣣वः꣢ । स्तु꣣षे꣢ । वा꣣म् । अश्विना । बृह꣢त् ॥१७२८॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1728 | (कौथोम) 8 » 3 » 7 » 1 | (रानायाणीय) 19 » 2 » 2 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम ऋचा की पूर्वार्चिक में १७८ क्रमाङ्क पर पहले व्याख्या की जा चुकी है। यहाँ ऋतम्भरा प्रज्ञा का वर्णन है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(एषा उ) यह (अपूर्व्या) अपूर्व, (प्रिया) प्रिय (उषाः) प्रकाशमयी ऋतम्भरा प्रज्ञा (दिवः) देदीप्यमान आत्मलोक से (व्युच्छति) प्रकट हो रही है। हे (अश्विनौ) उस ऋतम्भरा प्रज्ञा से चमत्कृत मन और आत्मा ! मैं (वाम्) तुम दोनों की (बृहत्) बहुत अधिक (स्तुषे) स्तुति करता हूँ ॥१॥

भावार्थभाषाः -

जब योगी के मानस आकाश में ऋतम्भरा प्रज्ञारूप दिव्य उषा प्रकट होती है, तब शरीर में स्थित आत्मा, मन, बुद्धि, प्राण, इन्द्रिय आदि सभी दिव्य ज्योति से प्रदीप्त हो जाते हैं ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके १७८ क्रमाङ्के व्याख्यातपूर्वा। अत्र ऋतम्भरा प्रज्ञा वर्ण्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

(एषा उ) इयं खलु (अपूर्व्या) अनुपमा, (प्रिया) प्रीतिकरी (उषाः) प्रकाशमयी ऋतम्भरा प्रज्ञा (दिवः) द्योतमानात् आत्मलोकात् (व्युच्छति) प्रकटीभवति। हे (अश्विनौ) तया ऋतम्भरया प्रज्ञया चमत्कृतौ मनआत्मानौ ! अहम् (वाम्) युवाम् (बृहत्) बहु (स्तुषे) स्तौमि ॥१॥२

भावार्थभाषाः -

यदा योगिनो मानसाकाशे ऋतम्भरा प्रज्ञारूपिणी दिव्योषा आविर्भवति तदा देहस्थान्यात्ममनोबुद्धिप्राणेन्द्रियादीनि सर्वाण्यपि दिव्येन ज्योतिषा प्रदीप्तानि जायन्ते ॥१॥